जाहलो मी बघा बावरा यारहो
साजणीचा असा चेहरा यारहो
येतसे मंदिरी रोजच्या पैठणी
शाल आईसही पांघरा यारहो
ही बघा चालली पावले वाकडी
ह्या घराला कुठे उंबरा यारहो ?
सोडुनी पाखरे दूर गेली नभी
पोरका जाहला पिंजरा यारहो
"खेचुनी पाय तू ध्येय गाठायचे"
बोलली अंतरी, 'मंथरा' यारहो
● विश्वजीत दीपक गुडधे,
अमरावती.
पेड़ पानी से ख़फ़ा लगता है (ग़ज़ल)
पेड़ पानी से ख़फ़ा लगता हैबाढ़ आई थी, पता लगता हैख़ाली जगहें यूँ न रखिए साहिबइश्तिहारों को बुरा लगता हैहाशिए जब से हुए हैं रौशनरंग-ए-तहज़ीब उड़ा लगता हैजब कि हाथों की थमी है सिहरनक्यों लरज़ता सा छुरा लगता है?क्या करे कोई भला इस दिल का?जो न लग कर भी लगा लगता हैबेबसी है या कि ये सद्मा है?जो गुज़रता है ख़ुदा लगता है- विश्वजीत
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