जलते बुझते ख़्वाबों का इक क़स्बा लेकर शहर-ए-ख़्वाहिश निकले थे हम क्या क्या लेकर हर बार उसे "आज नहीं कल" कह जाते हो पछताओगे दिल को इतना हल्का लेकर झगड़े का तो कुछ भी हल हम ढूंढ न पाए सो बैठे है बेमतलब का झगड़ा लेकर रब जाने क्यूँ तुम तक ही मैं आ जाता हूँ अपनी सारी फ़रियादों का दरिया लेकर क़दमों ने जो दो साँसे लीं तो लगता है भाग न जाए कोई मेरा रस्ता लेकर अब तो सारे करते होंगे सज्दा उसका आया था वो अच्छा ख़ासा 'जुमला' लेकर - विश्वजीत गुडधे
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