जलते बुझते ख़्वाबों का इक क़स्बा लेकर
शहर-ए-ख़्वाहिश निकले थे हम क्या क्या लेकर
हर बार उसे "आज नहीं कल" कह जाते हो
पछताओगे दिल को इतना हल्का लेकर
झगड़े का तो कुछ भी हल हम ढूंढ न पाए
सो बैठे है बेमतलब का झगड़ा लेकर
रब जाने क्यूँ तुम तक ही मैं आ जाता हूँ
अपनी सारी फ़रियादों का दरिया लेकर
क़दमों ने जो दो साँसे लीं तो लगता है
भाग न जाए कोई मेरा रस्ता लेकर
अब तो सारे करते होंगे सज्दा उसका
आया था वो अच्छा ख़ासा 'जुमला' लेकर
- विश्वजीत गुडधे
पेड़ पानी से ख़फ़ा लगता है (ग़ज़ल)
पेड़ पानी से ख़फ़ा लगता हैबाढ़ आई थी, पता लगता हैख़ाली जगहें यूँ न रखिए साहिबइश्तिहारों को बुरा लगता हैहाशिए जब से हुए हैं रौशनरंग-ए-तहज़ीब उड़ा लगता हैजब कि हाथों की थमी है सिहरनक्यों लरज़ता सा छुरा लगता है?क्या करे कोई भला इस दिल का?जो न लग कर भी लगा लगता हैबेबसी है या कि ये सद्मा है?जो गुज़रता है ख़ुदा लगता है- विश्वजीत
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