खबर आई की काशी से बहते-बहते चले आए है कुछ बेजान कछुएं सूबा-ए-मगध की ओर करते साँसों की डोर गंगा में प्रवाहित । तभी एक और खबर चल पड़ी इसके ठीक विपरीत दोनों तरफ से चलता रहा खबरों का पुरज़ोर खंडन होता रहा बखान की किसकी कमीज़ है कितनी दागदार कितने शफ़ीक़ हैं दोनों के ताजदार पर सामने न आया कोई दावेदार क्योंकि वह कछुएं - न तो थे कोई स्वर्णमयी हंस जिन्हे गढ़कर बन सके किसी शासक का राज-मुकुट, और न ही कोई जमीन का टुकड़ा जिसे पाने की सनक में भिड जाए दो देशों की सेनाएँ
वह तो थे केवल मामूली कछुएं जिन्हें पहली साँस के साथ ही सिखाया गया रेंगना ताकि रेंगते-रेंगते गल जाए सारी उनकी हड्डियाँ और मृत्योपरांत भी मयस्सर हो न पाए चंद लकड़ियाँ मगर निर्माणाधीन रहे बादशाह के रथ का पहिया मैं भी रोज की तरह रेंग रहा हूँ पढ़ते हुए अपना अखबार आज की सुर्खियाँ कहती है - "अंत्येष्टि का अधिकार आर्टिकल इक्कीस.. आर्टिकल पच्चीस.."
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